मजदूर
सवेरे से शाम तक, जी तोड़ मेहनत करता है..
अपने मेहनत की कमाई से ही, वो सोहबत रखता है..
पसीने से लथपथ शरीर, दिनभर में टूट जाता है..
वक्त पर खिलौना ना लाने पर, बच्चा भी उससे रूठ जाता है..
शाम का वक्त होते ही, मजदूरी के लिए ताकता है..
फटी कमीज के छिद्रों से, उधड़ा हर सपना झांकता है..
वो बड़ा खुद्दार भी है, बेईमानी की खुद को आदत नही देता..
अवकाश मिलते कहां है, उसे उसका काम घूमने-फिरने की इजाजत नहीं देता..
कभी काम नही मिलता,कभी पूरे घर को लगना पड़ता है..
मजदूर जो ठहरा,मजदूरी के लिए दबना पड़ता है..
उसके जीवन में ब्रांड नही, शौक श्रंगार का वास नही..
छोटी-छोटी किश्तों से थोड़ा राशन, थोड़ी मुस्कान लाने में विश्वास रखता है..
पैरो में घिसी हुई चप्पल, हथेलियां छालों से भरी होती है..
मौसम के थपेड़ों पर निर्भर आजीविका, मुद्दतों के बाद कभी हरी होती है..
मजदूर के दिल से वस्ल नही, इसलिए वेदना इतनी मैं लिख नही सकता..
उसके अंकुश लगे माहौल अधधुले भावों को, मैं समझ नही सकता..
Kavish kumar
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