इंसान नही है यारों

हमारे दिल की जमीं पर अब,सार्थक निशान नहीं है यारों..
धर्मों में रंगे हुए है अब, हम इंसान नही है यारों..
कुछ बेतुके मुद्दे उठाकर,लहू-लहू से लड़ जाता है..
धर्म-धर्म से लड़ते-लड़ते​, इंसान कहा खो जाता है..
रोज-रोज के ये युद्ध, जलते बाजार लाते हैं..
हर दिन घर पर मेरे, खून से सने अखबार आते हैं..
कुछ आस्तीन के सांपों से,हम बांट दिए जाते हैं..
पत्थर दिल बनकर के, इंसान काट दिए जाते हैं..
मर रही तिल-तिल इंसानियत, सबको ही सजा देती है..
मौत कहा धर्म देखती है, बस लाशें बिछा देती है..
क्या आगे आने वालों को,बस ये हिंसा और द्वेष देंगे..
खुद में बैठे इंसान से पूछो,कैसा भारत देश देंगे..
अब क्या धर्मों की बस्ती में, इंसान का मकान नहीं है यारों..?
धर्मों में इतना रंग लिए हम, जो अब इंसान नही है यारों..?
_kavish

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